- अजय ब्रह्मात्मज
- 22 August 2020
- 890
"मैंने काम करते करते लिखना सीखा।"
अजय ब्रह्मात्मज के सवाल, लेखकों के जवाब: असीम अरोड़ा
पिछले 14 सालों से पहले टीवी और अब फिल्म लेखन में सक्रिय असीम अरोड़ा ने ‘नन्हे जैसलमेर’ (2007) से शुरुआत की थी। उनकी ताज़ा फिल्म ‘बेल बॉटम’ की शूटिंग चल रही है। असीम ने लेखन का कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया है। उन्होंने निरंतर अभ्यास और सहयोगी लेखकों और निर्देशकों की मदद से ख़ुद को निखारा है। पढ़ने के शौक़ीन असीम को किताबों से अतिरिक ऊर्जा मिलती है।
- जन्मस्थान
भड़ौत,मेरठ,उत्तर प्रदेश।
- जन्मतिथि
15 फ़रवरी 1981
- शिक्षा-दीक्षा
बीकॉम, दिल्ली विश्वविद्यालय।
लेखन का प्रशिक्षण और अभ्यास?
कोई प्रशिक्षण नहीं। काम करते-करते सीखा। पहली बार अश्विनी चौधरी की फिल्म ‘धूप’ की शूटिंग देखते समय रूचि जगी। वह फिल्म कारगिल युद्ध से सम्बंधित थी और मेरी पढ़ाई सैनिक स्कूल में हुई है। हिंदी फ़िल्में देखते हुए मैं सीन स्ट्रक्चर लिखता था संवादों के साथ। समीर कार्निक के साथ सीखा ‘नन्हें जैसलमेर’ के समय। परवेज़ शेख, रितेश शाह और मोहित सूरी के साथ काम करने के दौरान सीखा।
आप मुंबई कब आये?
15 नवम्बर 2000 को। मैं 15 को आया और 16 को काम मिल गया था।
कहानी लिखने का विचार कैसे आया? पहली कहानी कब लिखी थी? वह कहीं छपी थी या कोई और उपयोग हुआ था?
बचपन में तीसरी या चौथी कक्षा में। मेरे ट्यूशन टीचर ने छुट्टी ले ली थी। टीचर ने कहा कि कोई कहानी लिखो। उन दिनों ‘टर्मिनेटर’ देखी थी। मैंने पूछा कि फिल्म की कहानी लिख दूं। उन्होंने हामी भर दी तो उसी फिल्म की कहानी अपने शब्दों में लिख दी। उन्होंने बहुत प्रोत्साहित किया। बचपन में डरपोक बच्चा था। मैं अपना डर पन्नों पर निकलता था। ‘धूप’ से प्रेरित होकर एक कहानी लिखी और एक टीवी चैनल में पिच भी किया था। उन्होंने मना कर दिया था, लेकिन छः महीने के बाद वह ऑन एयर दिखी। मैंने यही मान लिया कि कुछ लिख सकता हूँ।
पहली फिल्म या नाटक या कोई शो, जिसकी कहानी ने सम्मोहित कर लिया?
‘क़यामत से क़यामत तक’ का गहरा असर रहा। बचपन में रिलीज़ के साल में ही देखी थी। फिल के बाद आमिर खान का इंटरव्यू आया तो मैं दंग रह गया कि फिल्म में तो मर गए थे। अभी बात कैसे कर रहे हैं? खुशवंत सिंह की ‘द मार्क ऑफ़ विष्णु’ का असर रहा। पढ़ता रहता हूँ।
आप का पहला लेखन जिस पर कोई फिल्म, टीवी शो या कोई और कार्यक्रम बना हो?
पहला लेखन’ नन्हे जैसलमेर’ है। उसकी पटकथा और संवाद पर काम किया था।
ज़िन्दगी के कैसे अनुभवों से आप के चरित्र बनते और प्रभावित होते हैं?
सबसे बड़ा अनुभव तो मेरे माता-पिता का अलग होना है। स्थितियां कुछ ऐसी थीं कि बुरा नहीं लगा। हम घर के हालात देख रहे थे। मां का निर्णय सही लगा था। हम दोनों भाई समझ रहे थे। हम लोग दिल्ली आकर रहने लगे। कुछ सालों तक तो मैं रेबेल हो गया था। किसी की सुन नहीं रहा था। ये सारे अनुभव जमा होते गए। फिर समझ में आया की पीड़ा की भी समय सीमा होनी चाहिए। स्कूल के दिनों में एक लड़का बहुत तंग करता था। उससे मैं डरा रहता था। उस डर को मैं लिख सकता हूँ। किरदारों को अपने अनुभवों से ढालें तो करीबी होते हैं। ‘मलंग’ में आदित्य रॉय कपूर के किरदार में ख़ुद को तलाश रहा था, पर मैंने खुद को दिशा पत्नी के किरदार में पाया। कुणाल खेमू के डर में मैं था।
चरित्र गढ़ने की प्रक्रिया पर कुछ बताएं?
कहानी के बाद चरित्रों पर ही काम करता हूँ। वे ही कहानी को परदे पर जीते हैं। वे नए मोड़ भी देते हैं। जिन लोगों को देखा-समझा है, उनको ही ले आता हूँ। रियल लाइफ के लोग ही मेरे चरित्र बनते हैं।
क्या आप अपने चरित्रों की जीवनी भी लिखते हैं?
बिलकुल लिखता हूँ। विस्तार से लिखता हूँ। उसके बाद पटकथा लिखने में आसानी होती है। उनके साथ थोड़ा जीता हूँ। यह शिवम् नायर ने मुझे समझाया था कि कहानी लिखनी चाहिए और लम्बी लिखनी चाहिए। रितेश शाह ने भी यही समझाया।
अपने चरित्रों के साथ आप का इमोशनल रिश्ता कैसा होता है?
बनता है। बहुत गहरा बन जाता है और कई दफ़ा निकलना मुश्किल होता है। मैं एक साथ तीन फ़िल्में नहीं लिख सकता।
क्या कभी आप के चरित्र ख़ुद ही बोलने लगते हैं?
ख़ुद बोलने और करतूतें करने लगते हैं। सब होता है।
क्या किरदारों की भाषा अलग-अलग होनी चाहिए?
उनकी पृष्ठभूमि, शिक्षा-दीक्षा, उम्र और ज़िन्दगी से किरदारों की भाषा तय होती है। उनकी सोच के अनुसार भी भाषा बनती है। दादी मां की भाषा ठेठ होगी लेकिन उनकी कही बातों में तजुर्बा होगा।
संवाद लिखना कितना आसान या मुश्किल होता है?
मेरे लिए कॉमेडी के संवाद लिखना बहुत कठिन होता है। बाकी दिक्कत नहीं होती। संवाद से ज़्यादा मुश्किल पटकथा लिखना है। पटकथा एक संघर्ष है। संवाद तो किरदारों के बोलने से आ जाते हैं।
दिन के किस समय लिखना सबसे ज्यादा पसंद है? कोई ख़ास जगह घर में लिखने के लिए?
कोई ख़ास जगह नहीं है। घर में दो-तीन कोने बना लिए हैं लिखने के लिए। कहीं भी लिख सकता हूँ। टीवी लिखने के समय कहीं आते-जाते आयडिया आने पर गाड़ी खड़ी कर फ़ोन पर लिख लेता था। कभी भी और कहीं भी लिख सकता हूँ।
कभी राइटर ब्लॉक से गुज़रना पड़ा? ऐसी हालत में क्या करते हैं?
कई बार कोई सीन बन नहीं पता है। लिखा हुआ संतोषजनक नहीं लगता। ऐसे में पुराने सीन पढ़ लेते हैं। कोई किताब पढ़ लेते है। कभी कोई डॉक्युमेंट्री देख लेते हैं। कभी रुक भी जाते हैं।
लेखकों के बारे कौन सी धारणा बिल्कुल गलत है?
कि कम पैसे में घर चला लेंगे। बिलकुल गलत धारणा है। यह भी कि लेखकों की ज़िन्दगी जितनी मुश्किल होगी, उतना अच्छा लिखेंगे। इसके लिए कम पैसे देकर मुश्किलें न बढ़ाएं।
लेखक होने का सबसे बड़ा लाभ क्या है?
ज्ञान। इतनी सारी जानकारियां एकत्रित करते हैं। शोध इत्यादि चलता रहता।
फिल्म के कितने ड्राफ्ट्स तैयार करते हैं?
फिल्म के विषय पर निर्भर करता है। ज़्यादा ड्राफ्ट लिखने से ज़रूरी नहीं है कि फिल्म चल भी जाए। ‘लखनऊ सैंट्रल' के 40 ड्राफ्ट लिखे थे। दूसरी फ़िल्में 15-20 ड्राफ्ट में ओके हुई हैं। औसतन 15 हो ही जाते हैं।
अपने लेखन करियर की अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
जिस तरह का काम करना छह रहा हूँ, वह कर पा रहा हूँ। यही सपना था। यूनिफार्म, पुलिस और टॉपिकल फ़िल्में लिखनी थीं। उन्हें लिख रहा हूँ। सराहना मिल रही है। परिवार को ढंग से रख पा रहा हूँ। उन्हें मन मुताबिक शिक्षा दे पा रहा हूँ।
कई बार कलाकार दृश्य और संवादों में बदलाव करते हैं। क्या यह उचित है?
उचित है, अगर लेखक की सहमती और जानकारी में किया जाये। अगर बिना बताये कर रहे हैं तो ठीक नहीं है, क्योंकि उस विषय को लेखक के जितना आप नहीं जानते होंगे। इन दिनों निर्देशक की मदद मिलती है। मोहित सूरी के साथ कमाल का अनुभव रहा। अक्षय कुमार के साथ ‘बेल बॉटम’ पर बहुत अच्छा अनुभव रहा। उनके साथ 35-40 बार बैठा।
लेखन एकाकी काम है। अपने अनुभव बताएं।
लिखना तो अकेले पड़ता है, लेकिन टीम वर्क भी है। कलाकार और निर्देशक से सहयोग मिलता है। अगर आप साहित्यकार हैं तो इसकी ज़रुरत नहीं पड़ती।
आप के आदर्श फ़िल्मी लेखक कौन हैं?
अभी अभिजात जोशी हैं। वे महीन पहलुओं को भी आसानी से आगे बढ़ा देते हैं। आरके नारायणन। समकालीनों में रितेश शाह और जयदीप साहनी।
लेखकों की स्थिति में किस बदलाव की तत्काल ज़रुरत है?
आईपीआर का मामला सुलझ जाए। उस पर एक ह्वाईट पेपर आ जाये। जिसकी कहानी है। उसे तो श्रेय मिलना चाहिए।
साहित्य और सिनेमा के रिश्तों पर क्या कहेंगे?
बहुत ज़रूरी है। कभी गहरा रिश्ता था। नौवें दशक के बाद हम साहित्य से दूर चले गए थे। इधर फिर से साहित्य के प्रति झुकाव बढ़ा है। पुराने साहित्य पर नज़र दौड़नी चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्म में उनका उपयोग हो सकता है।
इन दिनों क्या लिख रहे हैं?
इन दिनों मोहित सूरी और निखिल अडवाणी की नयी फिल्म लिख रहा हूँ। ‘बेल बॉटम’ शूट होने गयी है।
अपनी स्क्रिप्ट में गानों की सिचुएशन आप डालते हैं या किसी और की सलाह होती है?
मैं तो लिख देता हूँ। गानों की सिचुएशन के लिए विवरण लिख देता हूँ। गानों को मैं विजुअल ब्रेक के तौर पर देखता हूँ। संवादों के बगैर पटकथा को आगे बढ़ने में गानों से मदद मिलती है।
इंटरवल पॉइंट कौन तय करता है स्क्रिप्ट में?
ज्यादातर मैं ही करता हूँ। पिछली 3-4 स्क्रिप्ट में यही हुआ है। शुरुआत, मध्य और अंत लिख कर देता हूँ।
स्क्रिप्ट किस सॉफ्टवेयर पर लिखते हैं और उसकी भाषा क्या होती है?
मेरे पास मूवी मैजिक और फाइनल ड्राफ्ट दोनों है, मैं मूवी मैजिक को प्राथमिकता देता हूँ। लिखता अंग्रेजी में हूँ और हिंदी संवाद रोमन में लिखता हूँ।
फिल्म लेखन में आने के इच्छुक प्रतिभाओं को क्या सुझाव देंगे?
एक तो पढ़ाई कर के आयें। पढ़ाई से ज्ञान और अनुभव मिलता है। कुछ भी बनना हो तो उसमें मदद मिलती है। टीवी के लिए लिखने से ना भागें। वह आप को तैयार कर देगा। यह अनुराग बासु की सलाह है, जिसे मैं आगे बढ़ा रहा हूँ।

अजय ब्रह्मात्मज जाने-माने फिल्म पत्रकार हैं। पिछले 20 सालों से फिल्मों पर नियमित लेखन। 1999 से दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे प्रमुख अखबारों के साथ फ़िल्म और मनोरंजन पर पत्रकारिता। चवन्नी चैप (chavannichap.blogspot.com) नाम से ब्लॉग का संचालन। हिंदी सिनेमा की जातीय और सांस्कृतिक चेतना पर फिल्म फेस्टिवल, सेमिनार, गोष्ठी और बहसों में निरंतर सक्रियता। फिलहाल सिनेमाहौल यूट्यूब चैनल (youtube.com/c/CineMahaul) और लोकमत समाचार, संडे नवजीवन और न्यूज़ लांड्री हिंदी में लेखन।